इस लेख के लेखक अंकित कुमार है, जो एक लघु उद्यमी है।
परंपराओं का व्याख्यान,हमारे धर्म ग्रंथों एवम हमारे समाज में उपस्थित गणमान्य लोगों के मुख से हमे प्रत्येक त्योहार पर या फिर किसी प्रकार के सामाजिक कार्यक्रमों में किसी विशेष कार्य के करने की परम्परा के बारे में उल्लेख सुनने को मिलता है। जैसे एक परम्परा अभिवादन करने का,चाहे वह उम्र में छोटे व्यक्ति का बड़े व्यक्ति को प्रणाम करने का हो या फिर बड़े व्यक्ति का छोटे को आशीर्वाद देने की परंपरा देखने को मिलती है तथापि हमे धार्मिक अनुष्ठानों में कई प्रकार की विशेष परंपराओं का निर्वहन करना पड़ता है। हम अगर दीपावली की बात करे तो इस पर्व में हम देखते है,की लोग अपने घरों पर शाम को दीपक जलते है तथापि माता लक्ष्मी और ज्ञान की देवी सरस्वती के साथ – साथ प्रथम पूज्य विघ्नहर्ता भगवान गणेश जी की पूजा करने का विधान है। इसके अतिरिक्त हम यह भी देखते है कि दीपावली के इस पावन पर्व के दिन जुआ खेलने की परंपरा भी प्रसिद्ध है। अब परंपराओं के बारे में सुनते – सुनते कई बार कुछ लोगों के मस्तिष्क में यह बात घर करने लगती है कि आखिर यह परंपराए होती क्या है? कई लोगो को फिर चिंतन करने के बाद यह प्राप्त होता है,की परंपरा और कुछ नहीं बल्कि हमारे पूर्व पीढ़ी द्वारा मिला हुआ एक सामाजिक कर्तव्य है,जो पीढ़ी दर पीढ़ी हमे विरासत में मिलता गया। इन सब क्रम में ना जाने कितनी परमपराएं टूट गई और ना जाने कितनी परमपराएं बन गई। हमे अपने बुजुर्गों से सुनने को किसी कार्य को लेकर सुनने को मिलता है कि पहले के जमाने में यह होता था और अब यह परंपरा खत्म हो गई और जब हम किसी ऐसी परंपरा को खत्म करने की बात अपने बुजुर्गो से कहते है जिन परंपराओं से समाज की हनी ही होती है तो ऐसे में हमे अपने बुजुर्गो से ही सुनने को मिलता है। परंपराओं को तोड़ना उचित नहीं जान पड़ता है। किन्तु इस। बात पर मेरा मत बिल्कुल ही भिन्न है,मेरा परंपराओं के विषय में यह मत है कि को परमपराएं में सामाजिक दृष्टिकोण से हानि पहुंचाते है उन परंपराओं को समाप्त हो जाना ही चाहिए। क्योंकि श्री भगवान ने स्वयं गीता में कहां है कि परिवर्तन का होना ही संसार का नियम है। इसीलिए परंपराओं का परिवर्तित होना भी अनिवार्य है। मेक्री बातों का यह अर्थ नहीं कि आप होली के दिन दिया जलाए या फिर दीपावली के दिन रंग लगाए। मेरे कहने का ऐसा कोई अर्थ नहीं में बस यह कहना चाहता हूं कि जिन परंपराओं से हमारी अपितु समाज की हानि होती है उन्ही परंपराओं को समाप्त करना चाहिए जैसे समाज में कई जगह पशु बली की परम्परा देखने को मिलती है। विधवाओं के सिर मुंडवाने की परम्परा,दीपावली को जुआ खेलने की परम्परा समेत बहुत सी परमपराएं है जिनका पालन करने से केवल हानि ही होती है। अतः ऐसी परंपराओं को समाप्त कर देना चाहिए तथा को परमपराएं समाज के लिए लाभदायक सिद्ध होती है और वह या तो धीरे – धीरे लुप्त हो रही है अथवा वह समाप्त हो चुकी है,उन परंपराओं को हमारे सामाजिक संस्कार में शामिल करना अनिवार्य होना चाहिए।
परंपराओं पर यह लेख अंकित भाई के द्वारा बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया गया है। यह लेख पढ़ कर सामाजिक परम्परा के संबंध में बहुत कुछ जानकारी प्राप्त हुई।