प्रस्तुत आलेख “विश्वास की परिभाषा” के लेखक विनीत त्रिपाठी(Vinit Tripathi) है, जो एक रंगकर्मी तथा भारत प्रहरी के सह संचालक भी है।
विश्वास क्या है ? यूं तो विश्वास की कोई एक अलग परिभाषा नहीं होती है, विश्वास हम उसे कह सकते हैं जो एक भक्त का भगवान पर हो, पिता का पुत्र पर हो, पति का पत्नी पर हो, पुत्र का माता पर हो या फिर किसी व्यक्ति का अपने बंधु–बान्धवों अपने रिश्तेदारों मित्रजनों हितजनों या फिर शुभचिंतकों से जताया गया यकीन या दिखाएं उनके प्रति आस्था को ही विश्वास कहा जाता है। विश्वास कोई औषधि नहीं है जो किसी को घोल कर पिला देने पर हो जाता है। विश्वास उस अटूट धागे में पिरोया जाने वाला श्रद्धा है। जो किसी व्यक्ति द्वारा अपने हितजनों के प्रति किए गए श्रद्धापूर्वक हितकार्य से उत्पन्न होती है। जीवन में कभी-कभी यह देखने को मिलता है, कि किसी का विश्वास जीतने में व्यक्ति को ना जाने कितना श्रम अर्जित करना पड़ता है,लेकिन उसे तोड़ने में मात्र एक क्षण ही पर्याप्त है और हमारे शास्त्रों में भी कहा गया है, कि शस्त्र के वार से लगने वाले घाव से भी बड़ा घाव होता है,विश्वास–घात
जीवन में कभी-कभी ऐसे क्षण आते हैं। जब हमारी विश्वास की डोर कमजोर पड़ जाती है। और हमारा विश्वास टूटने पर मजबूर हो जाता है और कभी कभी जीवन में ऐसे भी पहलू देखने को मिल जाते हैं जब हमारा सबसे ज्यादा किसी पर विश्वास हो और बाद में उस पर से भी विश्वास उठने लगे तब धैर्य और संयम बनाए रखने की आवश्यकता होती है।क्योंकि जब हम किसी अन्य व्यक्ति पर स्वयं से ज्यादा विश्वास करने लगते हैं।
उस क्षण हमें अपना विश्वास बनाए रखना हमारे लिए आवश्यकता होता है और हमें उस क्षण अपने धैर्य और संयम को भी नहीं छोड़ना चाहिए।