भगवान शिव की अर्धांगिनी सती
भगवान शिव की अर्धांगिनी सती
भगवान शिव की अर्धांगिनी सती,हम सभी देवाधिदेव महादेव की अर्धांगिनी के रूप में माता पार्वती की पूजा करते है,किंतु आज जो हम बताने वाले है,वह कहानी भगवान शिव की अर्धांगिनी माता सती की है। जो अपने पिता द्वारा अपमानित होने के पश्चात उन्होंने आत्मदाह कर लिया था। माता सती आदि पर शक्ति की ही रूप थी,जिनका जन्म महादेव से मिलन हेतु हुआ था।

कौन थे? माता सती के पिता

माता सती के पिता सृष्टि के रचयिता भगवान ब्रह्मा के पुत्र दक्ष थे। प्रजापति दक्ष भगवान शिव से घृणा करते थे और अपने – आप को शिव विरोधी मानते थे। वह माता सारी का विवाह भगवान शिव के साथ कदापि नहीं करना चाहते थे।

कैसे हुआ था? भगवान शिव का विवाह

जैसा कि हमने आपको पहले ही बता दिया था,की प्रजापति दक्ष भगवान शिव को देव नहीं अपितु एक अघोरी मानते थे। जिसके कारण वह भगवान शिव से घृणा भी करते थे। प्रजापति दक्ष के है कारण उनके परिवार के सभी लोग भगवान शिव की पूजा नहीं करते थे। प्रजापति दक्ष को छोटी पुत्री माता सती एक दिन पूजन हेतु नदी से जल भरने जाती है,तभी भगवान शिव की भुजाओं पर बंधा मनको का माला टूट जाता है और एक मनका माता सती के पास आ जाता है,जब यह मनका माता सती की बहने देखती है,तब वह माता सती से आग्रह करती है कि वह मनका फेक दे,क्योंकि उसे भगवान शिव तथा उनके भक्त है धारण करते है। बड़ी बहनों के आग्रह के बाद भी माता सती ने मनका नहीं फेका और उसे अपने पास ही रख लिया। धीरे – धीरे माता सती भगवान शिव से प्रभावित होने लगी और उनके प्रति आकर्षण को उन्होंने प्रेम का नाम दिया। जब यह बात दक्ष को पता चली कि माता सती भगवान शिव से प्रेम करती है और उन्ही से विवाह करेंगी तब प्रजापति दक्ष अत्यंत क्रोधित हुए और उन्होंने  माता सती का स्वयंवर करने का निश्चय किया। प्रजापति दक्ष के आदेशानुसार माता सती के स्वयंवर का आयोजन किया गया। जिसमे उन्होंने भगवान शिव की मूर्ति को द्वार पर खड़ा कर दिया था। 

तथापि महादेव और आदी शक्ति के प्रत्यक्ष रूप माता सती के मिलन हेतु ब्रह्मदेव और भगवान विष्णु ने महादेव से आग्रह किया कि सृष्टि के कल्याण के लिए आप देवी सती के स्वयंवर में जा कर उनका वरण करें।

जब स्वयंवर में देवी सती ने भगवान शिव की मूर्ति को वरमाला पहनाया तब महादेव ने प्रत्यक्ष रूप में प्रकट होकर के उनके वरमाला को स्वीकार किया तथापि उनका वरण किया,किंतू प्रजापति इस विवाह को मान्यता नहीं देना चाहते थे,लेकिन स्वयं ब्रह्मदेव और नारायण के समझाने पर वह मान गए। इस तरह से माता सती और भगवान शिव का विवाह हुआ था।

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