माँ से साक्षात्कार

माँ से साक्षात्कार,इस लेख के लेखक राकेश मिश्र ‘सरयूपारीण’ जी है।

राकेश मिश्र 'सरयूपारीण'
राकेश मिश्र ‘सरयूपारीण’

यद्यपि मैं बहुत अधिक पूजापाठ नहीं करता लेकिन नवरात्र में दुर्गा सप्तशती के कुछ अंश का पाठन अवश्य करता हूँ। यह सुनिश्चित है कि जितना भी पढ़ता हूँ , बड़े मनोयोग से पढ़ता हूँ। पुस्तक के अंतिम के पृष्ठों में दुर्गा सप्तशती के कुछ ऐसे श्लोक हैं, जिन्हें सप्तशती के पाठन के समय सम्पुट के रूप में प्रयोग किया जाता है। यह आपके ऊपर निर्भर है कि आप माँ से किस वस्तु की याचना करते हैं। उनमें विश्व कल्याण भी है, धनधान्य भी है, स्वास्थ्य की कामना भी है, यशकीर्ति के संदर्भ का भी मंत्र है, किन्तु जिस मंत्र को पढ़ते समय मेरी आँखें भर आती हैं, वह निम्न है: 

पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम् ।

तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम् ॥ 

मेरी भावनाएँ आहत हो जाती हैं। हर नवरात्र में उक्त मंत्र को जोर-जोर से पढ़ता हूँ, ताकि मेरी पीड़ा माँ के कानों तक पहुँच सके, ताकि मैं जान सकूँ कि मेरा दोष क्या रहा? 

अंततः माँ ने स्वप्न में दर्शन दे ही दिया। यही लगा कि जीवन धन्य हो गया। दर्शन मिल गए तो और क्या मांगना, लेकिन माँ तो माँ ठहरीं। माँ ने सर पर हाथ फेरा और बोल पड़ीं ‘ पुत्र मन की नहीं मिली क्या’?

मैं भावातिरेक में फफक पड़ा। माँ ने कहा कि : 

पुत्र..! जहाँ तक मुझे स्मरण है, तुमने पहली बार इस मंत्र का पाठन विवाह के पश्चात ही किया था। 

सत्य है माँ…! कहीं शरण नहीं मिल रही थी, तो आपकी ही शरण मे आया माँ कि देख लीजिए यदि कोई संभावना बनती हो तो…! वर्षों बीत गए माँ आपकी जोहार लगाते। कोई लाभ नहीं हुआ, उल्टे और भी यांत्रिक दोष आता गया माँ। पहले जब वह स्टार्ट होती थी तो बड़ा मधुर सा स्वर आता था… सुनिये, सुनिये, सुनिये, सुनिये…., फिर उसके बाद स्वर थोड़ा शुष्क हुआ और फिर इंजन से ‘ सुनो, सुनो, सुनो, सुनो…,के स्वर आने लगे। अब तो बड़ी ही कर्कश स्वर में ‘सुन सुन सुन सुन सुन सुन सुन’ की आवाज आती है। मेरी तो छोड़िए, पड़ोसी तक ‘सुन सुन सुन सुन सुन’ सुनकर सुन्न हो जाते हैं। 

पुत्र…! वास्तव में यह मंत्र अविवाहितों के लिए है। जिसने भी समय रहते इस मंत्र का मनोयोग से जाप किया, उसका कल्याण ही हुआ। अब इस मंत्र का तुम्हे कोई लाभ नहीं होने वाला। फिर भी यदि तुम्हारा मन नहीं मानता है तो सांप के चले जाने के पश्चात लाठी पीटते रहो।

फिर क्या करूँ माँ…! पूरा सप्तशती छान मारा, किन्तु पति की रक्षा के लिये कोई उपाय नहीं है। आप ने हम पुरुषों को स्त्रियों के हाथ में असहाय छोड़ दिया है। यहाँ तक कि कवच स्तोत्रम में जो यह श्लोक है कि 

गोत्रमिन्द्राणी में रक्षेत्पशूमे रक्ष चण्डिके।

पुत्राना रक्षणः महालक्ष्मी भार्यां रक्षतु भैरवी॥ 

इसमे पत्नी की भी रक्षा करती हैं, पुत्र की भी करती हैं यहाँ तक कि पशु की भी रक्षा करती हैं, लेकिन आपने हम पतियों को पशु से भी गया गुजरा समझ कर असहाय छोड़ दिया माँ…! मैं बिलख पड़ा था। 

माँ मंद-मंद मुस्काने लगीं और बोल पड़ीं: 

पुत्र …! मैं तुम्हारी माँ हूँ। जो भी पीड़ा हो ,  कहो..! हृदय पर कोई बोझ मत रखो। 

फिर मैं बोल पड़ा: 

माँ…! मेरे मन मे कई बार विचार आया कि उलझ जाऊँ, लेकिन आपके भैरवी रूप की छवि जब नेत्रों के समक्ष आती है तो भय से हृदय काँप उठता है। मुण्डमाल पहनी हुईं, क्रोधाग्नि से धधकते नयन, चारो भुजाओं में खड्ग, खप्पर, त्रिशूल आदि सज्जित, शेर पर सवार, वायु में लहराते खुले केश। अब जिस स्त्री की रक्षा आपका विकरालतम रूप ही कर रहा हो, उसका एक असहाय पति क्या कर सकता है? आपने तो कुछ ही क्षणों में महिषासुर का वध कर दिया था, फिर मैं क्या हूँ माँ? आपका शेर भी कस कर दहाड़ देगा तो प्राण त्याग दूंगा। 

हूँ…! पुत्र तुम ऐसा करो कि भोले महादेव के पास चले जाओ, कदाचित वह तुम्हारा उद्धार करें। 

गया था माँ..! नन्दी बाबा ने बाहर ही रोक लिया । जब मैंने उन्हें अपनी व्यथा बताई तो उन्होंने कहा कि तुमने देव्यापराधक्षमापनस्तोत्र का यह हिस्सा पढ़ा है कि नहीं: 

चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो

जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपतिः।

कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं

भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम्॥ 

[ जो चिता की भस्‍म रमाये हैं, विष खाते हैं, दिशाएँ ही जिनके वस्त्र हैं, जटा-जूट बांधे हैं, गले में सर्पमाल पहने हैं, हाथ में खप्‍पर लिए हैं, पशुपति और भूतों के स्‍वामी हैं, ऐसे शिवजी ने भी एकमात्र जगदीश्‍वर की पदवी पाई है, 

वह हे भवानी! तुम्‍हारे साथ विवाह होने का ही फल है। ] 

मैं नन्दी बाबा का आशय समझ गया था कि स्वयं कैलाशपति की सारी शक्तियाँ भी इसी कारण हैं क्योंकि भैरवी उनकी परिणीता हैं। फिर किस मुँह से मैं उनसे गुहार लगाता? 

पुत्र..! यह सब कुछ समझ चुके हो तो नाहक ही विलाप करते हो। तुम पुरुष हो, शक्तिशाली हो। शक्ति का प्रयोग करो..,माँ ने एक मधुर स्मिति के साथ कहा। 

यह आप क्या कह रही हैं माँ? मैं हाथ उठाऊँ.?, मैं आश्चर्य में पड़ गया था। 

शक्तिशाली का हाथ उठाना शक्ति का दुरुपयोग है पुत्र। तुम लड़ाई के समय शक्ति लगाकर तीव्र गति से भाग भी तो सकते हो., जगतजननी ने कहा। 

माँ..! आप यह क्या कह रही हैं? मेरा मुँह खुला रह गया था।

तो तुम कैसे यह विचार अपने मन मे लाये कि पत्नी पर हाथ उठाओगे…? माँ के नेत्र भी मुस्कुरा रहे थे। 

फिर मेरे प्राण ही हर लीजिये माँ जब आपके पास भी मेरे लिए कुछ भी नहीं है तो.., मैं रोने लगा था। 

मैंने कब कहा कि मेरे पास कोई उपाय ही नहीं है। तुम पति-पत्नी समवेत स्वर में इस मंत्र का पाठ करना: 

सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धन-धान्य सुतान्वितः।

मनुष्यो मत्प्रसादेन, भविष्यति न संशयः॥  

जब तुम्हारी पत्नी जोर से स्तुति करे तो तुम उससे भी जोर से करना, फिर वह तुमसे भी जोर से करेगी। इस तरह मंत्र की ध्वनि बहुत दूर तक जाएगी और जिस भी पशु, पक्षी, मनुष्य, कीट तक यह ध्वनि पहुँचेगी, उन सबका कल्याण हो जाएगा। 

मैं प्रसन्न होकर तत्क्षण जोर-जोर से जाप करने लगा। तभी पत्नी ने जोर से मुझे हिलाकर जगाया और कहा कि 

‘नींद लग गयी थी, वह तो अच्छा हुआ कि आप नींद में बड़बड़ाते हैं, जिससे समय से मेरी नींद खुल गयी। आप भी उठिए और जाइये जल्दी सारा सामान ले आइये। कलश रखना है। 

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