विज्ञान एवं आधुनिकता की आड़ में !

विज्ञान एवं आधुनिकता की आड़ में,आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम सब अंधे होने के साथ-साथ सोचने समझने एवं तर्क करने की शक्ति भी खोते जा रहे हैं।नि:संदेह विज्ञान हमारे जीवन का एक अहम अंग है, हमारा आधुनिक एवं दूरदर्शी होना भी परम आवश्यक है।

अजय दाहिया

इस लेख के लेखक अजय दाहिया है, जो प्रख्यात रंगकर्मी है

किंतु वर्तमान मे विज्ञान और आधुनिकता की आड़ में विभिन्न राजनीतिक संगठनों एवं देश विरोधी ताकतों ने समाज में, (खासकर समाज के युवाओं में)एक ऐसी मानसिकता का निर्माण किया है, जिसके प्रभाव में आकर युवाओं ने उस विशुद्ध ज्ञान को पाखंड या अंधविश्वास कहकर झूठलाने की कोशिश की है जिसे भारत के दूरदर्शी विद्वानों संत महात्माओं एवं ऋषि-मुनियों ने समाज कल्याण हेतु परंपरा एवं त्योहारों का रूप दिया था।

किताबों में लिखी हर बात सत्य हो यह आवश्यक नहीं है, हर लेखक का अपना दृष्टिकोण एवं रचनात्मकता होती है। पाठक की भी अपनी तर्क शक्ति होनी चाहिए किताबों में यदि कोई बात लिखी हुई है तो उसका अर्थ एवं यथार्थ समझने का प्रयत्न करना पाठक का नैतिक कर्तव्य है, किंतु सदैव ऐसा होता नहीं है।

ऐसी अनेक बातें हैं जिन्हें आधुनिक विज्ञान और विकासवाद के नाम का पर्दा डालकर ढकने की कोशिश की जाती है जबकि वास्तविकता में वह बातें वर्तमान के तथाकथित आधुनिक मनुष्यों की सोच से भी परे, एवं समाज के लिए कल्याणकारी है। आइए ऐसे ही कुछ बिंदुओं पर नजर डालते हैं।

● पितृपक्ष –

भारतीय परंपराओं व रीति-रिवाजों में 15 दिन पूर्वजों के लिए निर्धारित किए गए हैं। जिसमें मान्यता है कि कौवों को भोजन कराने से हमारे पूर्वजों को भोजन प्राप्त होगा।
लेकिन सवाल यह उठता है कि जब गीता में भगवान श्री कृष्ण ने यह बात स्पष्ट कर दी है की आत्मा अजर-अमर है तथा एक शरीर को त्याग कर दूसरे शरीर को प्राप्त करती है, फिर आत्मा बची कहाँ जो पूर्वजों के रूप में भोजन ग्रहण करेगी ?

असल में यह सांकेतिक बात है, कौवों द्वारा पूर्वजों को भोजन मिलने का तात्पर्य पूर्वजों की उस दूरदर्शिता को बल मिलने से है जिसे उन्होंने समाज कल्याण हेतु परंपरा का स्वरूप दिया था।
संभवत: जब हमारे पूर्वजों ने वर्षों के अवलोकन के बाद यह समझा की पीपल का वृक्ष सदैव प्राणवायु देता है, तथा उसकी छाया में विश्राम करना कल्याणकारी है। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कौवे द्वारा पीपल का फल खाने के उपरांत कौवे के पेट में ही पीपल के बीज निर्माण की प्रक्रिया होती है। भादों के महीने में मादा कौवा गर्भवती होती है, इस दौरान उसे पर्याप्त पोषण की आवश्यकता होती है।

इस बात को गहराई से समझ कर हमारे पूर्वजों ने घर के बाहर छतों व छप्परों में कौवों के लिए स्वादिष्ट एवं पौष्टिक पकवान रखना प्रारंभ किया। ताकि सृष्टि में कौवो की संख्या में वृद्धि हो, जिससे पृथ्वी पर बहुतायत में पीपल के वृक्ष उगेें, जिनसे शुद्ध प्राणवायु की कमी ना होने पाए।
कालांतर में संभवतः इसी प्रक्रिया ने परंपरा का रूप धारण कर लिया।
वर्तमान में कुछ तथाकथित डिग्रीधारी आधुनिकतावादी मनुष्य इस परंपरा का मज़ाक उड़ाते हैं।
इस लेख के माध्यम से लेखक उन आधुनिक मनुष्यों से सवाल पूछता है, कि विज्ञान ने जब प्रमाणित किया कि पीपल का वृक्ष 24 घंटे ऑक्सीजन देता है यह जानने के बाद कितने आधुनिक लोगों ने पीपल के पौधे लगाए ?
अथवा पीपल के वृक्ष के नीचे थोड़ी देर भी बैठे ?
जबकि धार्मिक लोग आज भी पीपल वृक्ष को देवतुल्य मानते हैं, पूजा के बहाने उसके नीचे भी जाते हैं जल भी डालते हैं ताकि वृक्ष हरा भरा बना रहे।
यहां पर तो आपने जिसे अंधविश्वास साबित करने की कोशिश की है उसी के द्वारा समाज का कल्याण किया जा रहा है।

● गाय के शरीर में देवी देवताओं का निवास –

भारतीय ग्रंथों में कहा गया है, कि भारतीय देसी गाय के शरीर में 33 कोटी देवी देवताओं का निवास होता है ।
इस बात को लेकर अक्सर व्यंग्य किया जाता है यहां तक कि कुछ तथाकथित विद्वानों ने तो इस बात को अंधविश्वास सिद्ध कर दिया है।
इस लेख में इस बिंदु को ऐसे ही लोगों की आंखें खोलने के लिए शामिल किया गया है।

भारतीय देसी गाय के शरीर के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न देवी-देवताओं का निवास बताया गया है। यह गाय के विभिन्न अंगों के गुणों का संकेतात्मक वर्णन है।
उदाहरण के लिए गाय के गोबर में लक्ष्मी का निवास बताया गया है।
दुनिया जानती है कि गाय के गोबर से बनी खाद यूरिया एवं अन्य रासायनिक खादों से कहीं अधिक बेहतर है। जिससे उत्पादन में बढ़ोत्तरी तो होती ही है साथ ही फ़सल में विषैले तत्व नहीं पनपते, जमीन की उर्वरा शक्ति भी बनी रहती है।
उत्पादन बढ़ने से आर्थिक लाभ तो होता ही है स्वास्थ्य लाभ भी होता है। गाय के गोबर की राख कीटाणु नाशक का भी काम करती है। भोपाल गैस दुर्घटना में भी उन घरों को कम नुकसान हुआ था जो कच्चे थे एवं गाय के गोबर से लीपे गए थे।
जन धन एवं स्वास्थ्य धन से बढकर कौन सा धन है ?
क्या यह किसी लक्ष्मी के आशीर्वाद से कम है ?

गोमूत्र में गंगा का निवास बताया गया है। अब कोई इस बात को स्वीकार करे या ना करे किंतु यह परम सत्य है कि कई गंभीर बीमारियों का इलाज गोमूत्र के माध्यम से किया जाता है, यहाँ तक कि दुनिया भर के कई आधुनिक देशों ने गोमूत्र पर पेटेंट लिया है उनमें से कुछ पेटेंट कोड निम्नलिखित है
US7718360B2,
CN201237565Y,
IN189078A1,
KR20000065910A,
US2002164378A1,
US6410059B1,
W00232436A1,
ZA200302276A
इन पेटेंट कोड्स को कोई वैज्ञानिक झुठला सकता है ?
आप स्वयं इंन पेटेंट कोड्स को गूगल पर सर्च करके इनके सर्च रिज़ल्ट्स देख सकते हैं।
वैज्ञानिकों ने अब जिस गोमूत्र पर पेटेंट लिया है भारतीय विद्वानों ने हजारों साल पहले ही उस गोमूत्र में गंगा का निवास बताकर उसके गुणों का संकेतात्मक वर्णन कर दिया था।
लेकिन विडंबना यह है, हमारे देश के विद्वान कोई बात कहें तो हम उसे समझे बिना ही अंधविश्वास घोषित कर देते हैं, जबकि विज्ञान स्वयं उस बात को स्वीकार करता है।

ठीक इसी प्रकार गाय के दुग्ध स्थल में अमृतसागर नामक देवता का स्वरूप दर्शाया गया है।
क्या दुनिया का कोई वैज्ञानिक यह साबित कर सकता है कि स्वास्थ्य की दृष्टि से देसी गाय के दूध में अमृततुल्य गुण नहीं हैं।

ठीक इसी प्रकार गाय के शरीर के अन्य अंगों में विभिन्न देवी-देवताओं का निवास माना गया है जो कि उस अंग के गुण स्वभाव व कर्म का सांकेतिक दर्शन है। आवश्यकता है उसे समझने मात्र की।
गाय के शरीर में अन्य बहुत सारे गुण हैं जैसे कि सूर्यकेतु नाड़ी, गाय का कुंभ इत्यादि यहां तक कि दुनिया के सबसे पहली वैक्सीन भी गाय से बनी जिसे रॉबर्ट एडवर्ड जेनर ने चेचक की वैक्सीन के रूप में बनाया।
वैक्सीन शब्द भी गाय के शरीर में पाए जाने वाले जीवाणु वैक्सीनिया से लिया गया है। इस वैैैकसीन ने लाखों लोगों की जान बचाई है, क्या यह गुण देवतुल्य नहीं है।

● पूजा हवन इत्यादि, ढोंग या विज्ञान ?

अगर भगवान श्री कृष्ण के दृष्टिकोण से देखा जाए तो श्रीकृष्ण ने निष्काम कर्म योग की बात की है तथा मूर्ति पूजा को गलत ठहराया है।
किंतु इस बात को सिर्फ विद्वान एवं अंतर्मुखी मनुष्य ही समझ सकते थे।
इसलिए साधारण एवं बहिर्मुखी मनुष्य के मनोविज्ञान को समझ कर, विद्वानों ने मूर्ति पूजा को विकसित किया।
तथा उन्हें विश्वास दिलाया कि ईश्वर पर भरोसा रखो और सच्चे मन से प्रार्थना के साथ अपना कर्म करो इच्छा अवश्य पूरी होगी।
तथा बुरे समय के लिए उन्हें यह भी समझाया कि ईश्वर परीक्षा लेते हैं धैर्य रखो, अच्छा समय अवश्य आएगा।
किंतु दुर्भाग्य भारत में इसे अंधविश्वास कह दिया गया, परंतु जब 26 नवंबर 2006 के दिन रौंड़ा बर्न की द सीक्रेट
नामक पुस्तक प्रकाशित हुई जो कि विश्व में सर्वाधिक बिकने वाली पुस्तकों में से एक है।
जिसमें इसी तरह की ढेर सारी बातें लिखी हुई हैं जिन्हें भारत में पाखंड या अंधविश्वास कहा जाता है।

एक ही तरह की बात भारतीयों के लिए अंधविश्वास तथा विदेशियों के लिए विशुद्ध विज्ञान कैसे हो सकती है ?

प्रसिद्ध पुस्तक द सीक्रेट ने जो बात 2006 में कहीं उस तरह की बातों से भारतीय ग्रंथ हजारों साल से भरे पड़े हैं।

स्वयं को आधुनिक एवं विज्ञानवादी कहने वाले मनुष्यों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हवन को पाखंड एवं प्रदूषणकारक कहा किंतु अपनी बात का कोई ठोस आधार नहीं दिया।
हवन में किसी भी अपशिष्ट पदार्थ को नहीं जलाया जाता बल्कि उसकी एक विधि है, कुछ निर्धारित औषधियाँ एवं द्रव्य हैं, गुणसूत्रों की जांच किए बिना जिनका निर्धारण करना असंभव है।
जिन्हें हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने हजारों लाखों साल पहले ही निर्धारित कर दिया था।
जैसे कि हवन में आम की लकड़ी ही जलाई जाएगी देसी गाय का घी, गुड़, नवग्रह वनस्पतियों का प्रयोग अत्यंत आवश्यक है।
विज्ञान के दृष्टिकोण से बात करें तो फ्रांस के प्रसिद्ध वैज्ञानिक ट्रैले ने अपनी रिसर्च में बताया की आम की लकड़ी या गुड़ जलाने से फार्मिक एल्डिहाइड गैस निकलती है जो खतरनाक विषाणुओं को मार कर वातावरण को शुद्ध करती है।
वहीं दूसरी ओर टौटिक नाम के प्रसिद्ध वैज्ञानिक ने अपने शोध में पाया कि आधा घंटा हवन में बैठने एवं हवन के धुएं के संपर्क में आने से टाइफाइड जैसे रोग के कीटाणु भी मर जाते हैं और शरीर शुद्ध हो जाता है।

ट्रैले और टौटिक के इन शोधों को देखकर तथा हवन के महत्व को समझ कर वनस्पति अनुसंधान संस्थान लखनऊ के वैज्ञानिकों ने भी अपने स्तर पर प्रयोग किया और यह देख कर अचंभित हो गए की हवन कक्ष में 1 घंटे के अंदर 14% विषाणु कम हुए 24 घंटे में 96% विषाणु कम थे तथा यह भी पाया कि एक बार किए हुए हवन का प्रभाव 30 दिनों तक रहता है।

इसीलिए अंतिम संस्कार के लिए चंदन की लकड़ी सर्वोत्तम मानी जाती है या फिर आम की लकड़ी इनकी उपलब्धता ना होने पर किसी भी लकड़ी का प्रयोग किया जाता है, किंतु
फिर भी थोड़ी-थोड़ी मात्रा मे सात प्रकार की विशेष लकड़ियाँ ( तुलसी, खैर, बेल, चंदन, आम, अपामार्ग, उमर) इत्यादि को कुछ मात्रा मे अवश्य डाला जाता है। जिसे परंपरा का रूप दे दिया गया है ताकि अंतिम संस्कार में भी प्रदूषण न होकर वातावरण का शुद्धिकरण हो।

● भारतीय ज्योतिष विज्ञान –

यह बात सत्य है कि बहुत से ज्योतिषाचार्यों ने धर्म की दुकानें खोल ली हैं, भविष्य बताने व सुधारने के नाम पर ठगी करते हैं।
किंतु ज्योतिष पाखंड है यह कहना सर्वथा अनुचित है।
भारतीय ज्योतिष के अंतर्गत विद्वानों ने वर्षों के अवलोकन के बाद यह निर्धारित किया है कि, कौन सा ग्रह है कितने दिनों में सूर्य की परिक्रमा करता है ।
एवं उसकी गति क्या है, सबसे पहले यह बात ज्योतिष में ही बताई गई है कि सारे ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं ।
ग्रहों को नग्न आंखों से विस्तार पूर्वक देख पाना संभव नहीं है।
इसके लिए ग्रंथों में तुरीय नामक यंत्र का उल्लेख मिलता है जिसकी कार्यप्रणाली आज के दूरबीन जैसी बताई जाती है यहां तक कि “7 दिन”, “नौ ग्रह” इत्यादि का वर्णन सबसे पहले भारतीय ग्रंथों में ही मिलता है।

भारतीय ज्योतिष विज्ञान ने ग्रहों उपग्रहों के हिसाब से दिनों के नाम रखे जैसे कि रविवार अर्थात सूरज का दिन वैज्ञानिकों ने उसे sun+day अर्थात Sunday कहा।
सोमवार अर्थात चंद्रमा का दिन विज्ञान मे उसे moon +day अर्थात Monday कहा।
इसी प्रकार मंगलवार को Tuesday, बुधवार को Wednesday वगैरह-वगैरह ।

विज्ञान ने कोई अलग बात नहीं की बल्कि जिस बात को भारतीय विद्वानों ने संस्कृत या हिंदी में हजारों वर्ष पहले ही कह दिया था उसी बात को विज्ञान ने अंग्रेज़ी मे कहा।

अध्यात्म में कहा गया है किस सृष्टि के कण-कण में ईश्वरीय शक्ति है, अर्थात ऐसी शक्ति को ईश्वर कहा गया जो हर जगह उपस्थित है। विज्ञान ने उसी बात को अपने तरीके से कहा कि कॉस्मिक एनर्जी सर्वत्र व्याप्त है ।
आप जब किसी डिक्शनरी में कॉस्मिक शब्द को खोजेंगे तो उसका अर्थ ब्रह्मांडीय अथवा लौकिक मिलता है और एनर्जी शब्द का अर्थ तो शक्ति ही है विज्ञान ने अलग से क्या कहा ?

यह तो वैसी ही बात है कि भारतीय ज्ञानियों ने जिसे सेब कहा वैज्ञानिकों ने उसे APPLE कह दिया ।
अब APPLE शब्द सेब की अपेक्षा अधिक आकर्षक लगता है यह बात मानी जा सकती है।

इसी तरह हज़ारों बातें हैं, योग विज्ञान आयुर्वेद चिकित्सा तथा अन्य विषयों को लेकर यहां तक कि C.E.R.N.(European Organization of Nuclear Research)
मे भगवान नटराज की विशालकाय मूर्ति है जहां स्पष्ट रूप से नटराज को नृत्य का जनक (Father Of Dance) कहा गया है।
ऐसे ही मेडिकल साइंस की कई किताबों में सुश्रुत ऋषि को शल्य-चिकित्सा का जनक (Father Of Surgery ) कहा गया है।

यहां तक कि कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय अमेरिका के सैद्धांतिक भौतिकविद प्राध्यापक (Theoretical Physicist Professor) जूलियस रॉबर्ट ओपनहाईमर

ने हिरोशिमा और नागासाकी में गिराए गए परमाणु बम विस्फोट की समानता भगवदगीता में वर्णित श्री कृष्ण के विराट रूप से की।
क्या इस प्राध्यापक को श्रीमद्भगवद्गीता के अतिरिक्त अन्य कोई पुस्तक नहीं मिली ?
जिसमें परमाणु बम विस्फोट जैसी स्थिति का वर्णन हो।

इस तरह की अनगिनत बातें हैं जिन्हें भारत में तो झूठलाने का प्रयत्न किया जाता है, किंतु दुनिया भर के वैज्ञानिक उसी बात को सत्य एवं और अधिक प्रामाणिक बना देते हैं।

लेखक यह नहीं कहता कि भारतीय परंपराओं में कोई दोष नहीं है, या विज्ञान गलत है ।
लेखक सिर्फ़ इतना ही कहना चाहता है, कि भारतीय ज्ञान की उन शाखाओं को विज्ञान भी स्वीकार करता है।
जिस भारतीय ज्ञान का अपमान एवं विरोध भारतीयों द्वारा किया जाता है, खैर ऐसा करना चिराग तले अंधेरा होने के सदृश है।
दुनिया भर के विद्वान भारतीय ज्ञान को स्वीकार करके उस ज्ञान के आगे नतमस्तक हैं ।

परंतु यह विषय अत्यंत वृहद है लेखक ने अपने अल्प ज्ञान के आधार पर कुछ विषयों को ही चुना है।
लेखक पाठकों से विनम्र अनुरोध करता है कि कमियां बताने और सुझाव देने में संकोच न करें ।

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3 Comments

  1. सर आपने भारतीय ज्ञान मौलिक व वैज्ञानिक है इसको बहुत ही सहज एवं सरल तरीके से प्रस्तुत किया इतने ज्ञानवर्धक लेख के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद

  2. Prakash Tripathi says:

    सबसे पहले अजय जी आपको बहुत बहुत धन्यवाद और अच्छी बात यह है कि मैं आपको पर्सनली जानता हूं इस लेख के माध्यम से भारतीय परंपरा संस्कृति विज्ञान को जिस सहजता एवं सरलता से आपने इस लेख के माध्यम से प्रस्तुत किया है अत्यंत ही सुखद है इस जानकारी के लिए एक बार फिर से आपको धन्यवाद मै अपनी शुभकामनाएं प्रेषित करता हूं प्रकाश त्रिपाठी