अहं! रंगमंचास्मि,मैं रंगमंच हूं वही रंगमंच जिसे कोई रंग+मंच = रंगमंच कहकर परिभाषित करता है तो कोई कुछ और परिभाषा देता है। लेकिन क्या मेरी परिभाषा को सीमाबद्ध किया जा सकता है ?उत्तर होगा कदापि नहीं।
प्रस्तुत लेख के लेखक अजय दाहिया है,प्राप्त्याशा लोक एवं संस्कृति प्रवर्तन समिति के सदस्य है
अहं! रंगमंचास्मि, रंगमंच का अध्ययन करने वाले अथवा रंगमंच को समझने वाले मुझे अपने हिसाब से शास्त्रबद्ध करना चाहते हैं । जोकि उतना ही कठिन है जितना फ़िसलती हुई रेत को मुट्ठी में रोके रखना । फ़िसलने के बाद भी कभी-कभी रेत के चंद कण जो हाथों में चिपके रह जाते हैं, रंगमंच के बड़े-बड़े सिद्धांतकार मेरी सिर्फ़ उतनी ही परिभाषा दे पाते हैं।
मैं रंगमंच हूं मुझे तब हंसी आई, विद्वानों ने जब बड़ी-बड़ी पुस्तकों में लिख दिया । “आदिमानव काल से रंगमंच की शुरुआत हुई।”
आपकी जानकारी के लिए बता दूं आदिमानव द्वारा शिकार की नकल करके दिखाना अभिनय की शुरुआत मानी जा सकती है, रंगमंच कि नहीं।
मैं रंगमंच मेरा अस्तित्व शाश्वत, सनातन, सर्वव्याप्त, सर्वकालिक है। यदि मैं शपथ लेकर कहूं कि मैं, ही ईश्वर, अल्लाह हूं । तो कट्टर धार्मिक लोग बुरा मान सकते हैं लेकिन क्या उनके बुरा मानने से सत्य बदल जाएगा !
भारतीय ज्ञानियों द्वारा हर तत्व में ब्रह्मांड की हर वस्तु में ईश्वर का वास माना गया है। विज्ञान ने भी जिसे “कॉसमिक एनर्जी” का नाम दिया है।
शायद इस बात का ज्ञान भरत मुनि को प्रचीन समय मे ही हो गया था। इसीलिए तो उन्होने लिखा-
न तज्ज्ञानं न तज्शिल्पं न सा विद्या न सा कला।
न सौ योगे न तत्कर्म नाट्येस्मिन् यन्न दृश्यते।।
अर्थात कोई ज्ञान शिल्प विद्या कला योग और कर्म नहीं है जो रंगमंच की परिधि से बाहर हो
इस श्लोक ने लगभग-लगभग मेरी परिभाषा को एक सही रूप दिया है ।
जब कोई भी ज्ञान कर्म मेरी सीमा से बाहर नहीं है तो इसका तात्पर्य तो यही हुआ, कि सब कुछ मुझ में समाहित है। सृष्टि की कोई कविता, कथा, कला भाव, बीज से लेकर वृक्ष तक और वृक्ष से पुनः बीज होने तक अणु से भी सूक्ष्म और गगन से भी विशाल मैं ही तो हूं।
जैसे – ईश्वर एक है। लेकिन उसे मानने वाले लोग अलग-अलग धर्म पंथ संप्रदाय मज़हब अलग-अलग अवतार एवं पैगंबर के रूप में उसे मानते हैं । ठीक उसी तरह “रंगमंच” अपने आप में एक विशाल ईश्वरीय सत्ता के सदृश ही है।
मुझे कहीं “यथार्थवादी” रंगमंच के रूप में स्टानिसलावस्की ने शास्त्रबद्ध किया। अपनी परिभाषाएं नियम एवं सिद्धांत बनाए। जैसे ईश्वरीय पूजा के विधान एवं नियम होते हैं, वैसा ही यथार्थवादी अभिनय में भी है।
दूसरी ओर ग्रामीण, आदिवासी समूह विभिन्न ईश्वरों की आराधना करते हैं। उसी प्रकार अलग-अलग क्षेत्रों में विभिन्न लोकरंगमंच के रूप में मैं ही तो हूं।
कहीं पुअर थिएटर, एपिक थियेटर के रूप में तो कहीं संस्कृत रंगमंच के अवतार मे।
कहीं ओपेरा तो कहीं मोबाइल थिएटर, नोह, काबुकी, भरतनाट्यम, कुचीपुड़ी, तोल्लम, नुर्ती, खोन, क्रूरल थिएटर, थिएटर ऑफ सिंबॉलिज्म, कॉमेदिया देल आर्ते, साइकोफिजिकल थिएटर, एब्थसर्ड थिएटर, थर्ड थियेटर, अल्टरनेटिव लिविंग थिएटर, पारसी रंगमंच, बांग्ला, मराठी, गुजराती रंगमंच इत्यादि।
इस तरह एक से बढ़कर एक 33 कोटि देवी देवताओं और एक लाख चालीस हज़ार पैगंबर से भी अधिक मेरे अवतार हैं।
“मैं रंगमंच हूं”। दुनिया भर के अलग-अलग क्षेत्रों में लोक रंगमंच के विविध रूपों के दर्शन आप कर सकते हैं। कहीं मैं “जात्रा” बनकर गलियों से गुजरता हूं, तो कहीं “पागलवेषम” के रूप में अजीब हरकतें करता हूँ।
“माच” की ऊंचाई मे मैं ही हूं, और ग्रीक_रंगमंच के एथेंस पर्वत और रोमन रंगमंच की गहराइयों में भी।
मुझे कोई क्या परिभाषित करेगा ! मैं तो स्वयं सब को परिभाषित करता हूं। कहीं ऋग्वेद बनकर उर्वशी और पुरुरवा के रूप मे, तो कहीं ग्रीक रंगमंचीय “ईडिपस” के स्वरूप में। मल्लिका और कालिदास भी मेरा हिस्सा है तो वही रोमियो और जूलियट भी मेरा अंश हैं।
मैं मंटो हूँ, तो जयशंकर_प्रसाद भी।
मैं मुक्तिबोध, श्रीकांत_वर्मा, नागार्जुन हूँ, तो जॉर्ज_बर्नार्ड_शॉ और टॉलस्टॉय भी।
वर्तमान में उपलब्ध दस्तावेजों के पहले भी मेरा अस्तित्व था।किंतु दस्तावेजों की बात करें तब भी नाटक त्रिपुरदाह, समुद्रमंथन से लेकर नाटककार सोफ़ोक्लीस यूरीपिडीज़ से होते हुए अश्वघोष, कालिदास, शूद्रक, शेक्सपियर, हेरॉल्ड पिंटर, से अनंत तक मैं ही तो हूं।
रामायण के निर्देशक नारद, वाल्मीकि से होते हुए यूजिनियो_बार्वा ग्रोटोवस्की, ब्रेख्त, स्टेनिस्लावस्की, बादल_सरकार, प्रोबीर_गुहा, निरंजन_गोस्वामी के बाद भी अनंत तक सब में मेरा ही तो अंश विद्यमान है।
फिर भी मुझे अहंकार नहीं है कि मैं रंगमंच हूं । किंतु आपको अथवा आपके शुभचिंतकों को अवश्य गर्व होता होगा कि आप अथवा आपके मित्र, भाई, बंधु, रिश्तेदार, एक रंगकर्मी है।
मेरे बारे में इस लेख के अंदर इतनी बड़ी बड़ी बातें लिखने वाला सृष्टि का सबसे बड़ा अज्ञानी जीव है।
उसे खुद इस बात का ज्ञान नहीं है कि वह क्या लिख रहा है। रंगमंच की सभी विभूतियों के बारे में भी यह अज्ञानी जीव शून्य से भी कम ज्ञान रखता है। इसलिए वह पहले ही रंगमंच एवं समस्त रंगकर्मियों से नतमस्तक एवं साष्टांग प्रणाम की मुद्रा में क्षमा चाहता है।
मैं “रंगमंच” मेरी हस्ती युगो सदियों सहस्त्राब्ददियों से है और चिरकाल तक रहेगी।
मैं ही शिव हूँ, शिव अर्थात शून्य जिसका आदि और अंत कोई नहीं जानता।
सृष्टि के कण-कण में व्याप्त रामायण महाभारत रामाकेईन इलियड ओडिसी से लेकर विरेचन के सिद्धांत, एलिनियेशन की थ्योरी, तक ।
ब्रह्मांड नक्षत्र सौरमंडल ग्रह उपग्रह तारे कोई भी तत्व ऐसा नहीं है। रंगमंच में जिसका मंचन संभव ना हो।
अहं_ब्रह्मास्मि की जगह अहं_रंगमंचास्मि कहा जाए तो अतिरेक नहीं होगा। क्योंकि सृष्टि के पांच प्रमुख तत्व पृथ्वी अग्नि जल वायु आकाश आपके अंदर ही हैं ।
अब कुछ तथाकथित विज्ञानवादी इस बात को धार्मिक कहकर खारिज करने की कोशिश करेंगे।
उन्हें यह जान लेना चाहिए कि आखिर शरीर में वह पांच तत्व हैं कहां ? मलद्वार से निकलने वाला मल मृदा समान है, अतः वह केंद्र पृथ्वी।
उसके ऊपर अग्नाशय केंद्र है जिससे भोज्य पदार्थ का पाचन होता है, अर्थात अग्नि।
किडनी शरीर मे जल का शुद्धीकरण करता है, अर्थात जल।फेफड़े अर्थात वायु । मस्तिष्क, नेत्र जहां से अनंत गगन का विस्तार है, अर्थात आकाश।
सृष्टि के तीन प्रमुख गुण जिनके बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता।
प्रथम “सतोगुण” जिसके द्वारा निर्माण होता है, इसे ही शास्त्रों में ब्रह्मा अर्थात सृष्टि का रचयिता का गया है।
द्वितीय “रजोगुण” जिसके द्वारा हर तत्व का पालन पोषण एवं विकास होता है, इसी “रजोगुण” को पालनहार विष्णु कहा गया।
तृतीय गुण है, “तमोगुण” अर्थात नष्ट करने वाला जिसे महेष कहा गया।
इन्हीं तीनों गुणों को अंग्रेजों ने संक्षेप में गॉड God (G=Generator, O= operator,D=destroyer) कहा है।
सब कुछ आपके भीतर ही है सोना,चांदी,तांबा,पीतल,ज़िंक,
कैल्शियम प्रोटीन वगैरह वगैरह सब कुछ आपके भीतर मौजूद है। साथ ही मैं भी।
मैं रंगमंच सब, मुझमें लय है, मैं सब में,और सर्वत्र व्याप्त हूँ। विज्ञान,फ़िल्म,सीरियल,वेब सीरीज, नुक्कड़ नाटक, शॉर्ट फ़िल्म सब मेरी संताने हैं। पृथ्वी की तरह गोल होने के साथ ही सुदर्शन_चक्र की गति से समाज की बुराइयों पर प्रहार मैं ही तो करता हूँ। गीता में श्रीकृष्ण ने जो कहा है जब आप उसे पढेंगे अथवा समझने का प्रयत्न करेंगे, तो आपके मस्तिष्क में सब कुछ एक नाटक की तरह प्रदर्शित होगा। गीता में रंगकर्मी श्रीकृष्ण ने जो कुछ कहा है वह सब कुछ मैं ही तो हूं ।
चक्कर के चक्कर में फंसकर घनचक्कर बनने के भंवरजाल में उलझे रहिए, मेरी सीमाओं को तलाशते रहिए, परिभाषाएं बुनते रहिए, किंतु किसी भी स्थिति में रंगमंच करते रहिए। मैं इतना लचीला हूँ कि हर परिस्थिति में ढल जाऊँगा। आप अपना कर्म करते रहिए यह दुनिया एक रंगमंच है, और हर प्राणी कलाकार।
अपनी कला को निखारने रहिए, मैं रंगमंच सभी को शुभकामनाएं देता हूं। और यदि संभव हो तो अहं_ब्रह्मास्मि की जगह “अहं_रंगमंचास्मि” कहना अधिक सारगर्भित होगा। मेरे बारे में लिखना इस तुच्छ लेखक के लिए संभव ही नहीं है । उसने तो नमूना स्वरूप चंद कणों को संजोकर आपके समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास मात्र किया है ।
अजय जी रंगमंच के बारे में इतनी गहराई से आपने लिखा मैंने रंगमंच के बारे में इतना अच्छा लेख अभी तक कहीं नहीं पड़ा है आप एक रंगमंचकर्मी है मुझे आप पर गर्व है आप रंगमंचकर्म कर भी रहे हैं उसको लिख भी रहे हैं आपने इस लेख में विश्व के अधिकांश द्वीपों को समेट लिया है चाहे वहां जापान का नोह और काबूकी हो या ग्रीक का रंगमंच। उम्मीद है आपकी विद्वता से हम आगे भी लाभान्वित होंगे।
मैने तो बस एक छोटा सा प्रयास किया है ।
वर्तमान मे अच्छे पाठकों की कमी है ।
आप इस लेख को शेयर करके अन्य पाठकों तक पहुचाते रहें
और इसी तरह हौसला बढ़ाते रहें
आपका आभार
अजय जी वास्तव मी आपने रंगमंच के ऊपर एक बेहद सुंदर रचना की है। आप ने जो भी लिखा है शानदार लिखा है। रंगमंच की उत्त्पति से लेकर अभिनय कि शुरुआत को अपने बहुत ही सहजता से दर्शाया है। आपका यह लेख वास्तव में अद्भुत है।
भैया बस मैने छोटा सा प्रयास किया है ।
अपनी साधारण सी समझ के हिसाब से जो संभव हो सका लिखा हूं।
वाह अजय भाई.. गज़ब का लेखन है.. गहन अध्ययन के बाद ही ये अमृत निकल सकता है…???